जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला | तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार | चलना हमारा काम है | गीत नूतन गा रहा हूँ | मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार | हम पंछी उन्मुक्त गगन के | कितनी बार तुम्हें देखा पर आँखें नहीं भरीं।
सीमित उर में चिर-असीम
सौंदर्य समा न सका
बीन-मुग्ध बेसुध-कुरंग
मन रोके नहीं रुका
यों तो कई बार पी-पीकर
जी भर गया छका
एक बूँद थी, किंतु,
कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी।
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।
शब्द, रूप, रस, गंध तुम्हारी
कण-कण में बिखरी
मिलन साँझ की लाज सुनहरी
ऊषा बन निखरी,
हाय, गूँथने के ही क्रम में
कलिका खिली, झरी
भर-भर हारी, किंतु रह गई
रीती ही गगरी।
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।
-शिवमंगल सिंह 'सुमन'