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शिवमंगल सिंह सुमन


जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला | तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार | चलना हमारा काम है | गीत नूतन गा रहा हूँ | मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार | हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के | कितनी बार तुम्हें देखा पर आँखें नहीं भरीं।


कितनी बार तुम्हें देखा पर आँखें नहीं भरीं।

सीमित उर में चिर-असीम सौंदर्य समा न सका
बीन-मुग्ध बेसुध-कुरंग मन रोके नहीं रुका
यों तो कई बार पी-पीकर जी भर गया छका
एक बूँद थी, किंतु, कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी।
कितनी बार तुम्हें देखा पर आँखें नहीं भरीं।

शब्द, रूप, रस, गंध तुम्हारी कण-कण में बिखरी
मिलन साँझ की लाज सुनहरी ऊषा बन निखरी,
हाय, गूँथने के ही क्रम में कलिका खिली, झरी
भर-भर हारी, किंतु रह गई रीती ही गगरी।
कितनी बार तुम्हें देखा पर आँखें नहीं भरीं।


-शिवमंगल सिंह 'सुमन'